Saturday, May 9, 2015

गंगा भी हिंदी, जमुना भी हिंदी...
अमित बैजनाथ गर्ग
लब्धप्रतिष्ठ शायर मुनव्वर राना ने कहा था, लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है/मैं उर्दू में गजल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है... हिंदी का भी आलम भी ऐसा ही है। यह भाषा के रूप में एक ऐसा महासागर है, जिसमें अन्य भाषाएं सहजता से प्रवाहित होती रहती हैं, वह भी अपना वजूद खोए बिना। शायद यह आधुनिक युग का प्रभाव है या फिर बढ़ती जरूरतें कि एक भाषा की दूसरी भाषा में आवाजाही बढ़ रही है। हालांकि इससे एक सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि भाषाओं के इस सम्मिश्रण में उनका प्रभाव कम हो सकता है या फिर वे अपना वजूद खो सकती हैं। इस विचार पर अपनी बात रखने के लिए देश में दो धड़े बन गए हैं। एक को लगता है कि इससे भाषाएं अपना वजूद खो देंगी, दूसरे को लगता है कि यह अच्छा है। इससे भाषाएं और पुष्ट होंगी।
     जहां तक मैं इस बात पर अपने विचार रखता हूं तो मुझे हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रचलन आशीर्वाद लगता है। इसकी एक वजह मैं यह मानता हूं कि हिंदी भारत के अधिकतर लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। देश की आधी से अधिक आबादी हिंदी में अपनी बात साझा करना ज्यादा प्रभावी-आसान समझती है। यह भी काबिलेगौर है कि जिस तरह दुनिया में हिंदी का प्रभाव बढ़ रहा है, उसी तरह देश में हिंदी भाषा में अन्य शब्दों का प्रचलन और प्रभाव, दोनों बढ़ रहे हैं। देश की आजादी से अब तक का ही नहीं, बल्कि उससे पहले भी भाषाई बदलाव होते रहे हैं। आजादी से पहले मुगलकाल में मुशल शासक अकबर के जमाने में पहले-पहल अदालतों और दफ्तरों में काम हिंदी में होता था, लेकिन उनके नवरत्न राजा टोडरमल ने हिंदी की जगह फारसी को काम-काज की भाषा बना दिया। इससे फारसी का ज्ञान भी अनिवार्य होता चला गया। मसलन, शुरू में हिंदी में फारसी के शब्द आने लगे, बाद में हिंदी की जगह फारसी लेने लगी। 
     भारत में जन्मी और पली-बढ़ी हिंदी देश की संस्कृति को भी बयां करती है। उसने जहां धर्म, जाति और क्षेत्रों की सीमाओं को लांघा है तो वहीं खुसरो, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रसखान, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद और निराला सरीखे अलग-अलग मजहबों के रचनाकारों को एक मंच साझा करने का मौका दिया है। हिंदू संतों की पदयात्रा और उनकी साखियों, पदों और वाणियों के साथ-साथ सूफी फकीरों की नज्में, गजलें और कव्वालियां लोगों की जुबां पर हिंदू-उर्दू के मिले-जुले रूप में सजी-संवरी हैं। हिंदी अन्य भाषाओं के जरिए व्यक्तियों, समुदायों और संस्थाओं के बीच रिश्तों का पुल बनाने में कारगर साबित हुई है। 
     देश की आजादी के वास्ते जब महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत लौटकर आए तो उन्होंने पूरे देश का दौरा किया। इस दौरे में उन्होंने हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाएं बोलने वाले लोगों को भी बेहद करीब से देखा-समझा। असल में बापू बेहद सरल हिंदी चाहते थे, जिसे आम बोलचाल में प्रयुक्त किया जा सके। उनके शब्दों में 'हिंदी उस भाषा का नाम है, जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं। हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है।...' गांधीजी ने हिंदी का वह रूप इस्तेमाल किया, जिसमें अन्य भाषाओं के आम शब्द भरपूर मात्रा में मौजूद थे। 
     आजादी के बाद गांधीजी व अन्य शख्सियतों के अथक प्रयासों से हिंदी राजभाषा बनीं। भारतीय संसद ने 14 सितंबर, 1949 को इसे राजभाषा का दर्जा दिया। संविधान के अनुच्छेद 343 में 'राजभाषा' के रूप में उल्लिखित और अनुच्छेद 351 में वर्णित संविधान की 8वीं अनुसूची में यह समाविष्ट है। हिंदी न केवल पचास करोड़ से अधिक जनों की मातृभाषा है, बल्कि साहित्यिक भाषा भी है। इसके साथ ही यह कई जातियों-समुदायों में भी प्रचलित है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई अन्य भाषाएं भी देवनागरी की हिंदी के बेहद निकट हैं। बोलचाल की ही नहीं, लेखन की हिंदी में भी कई शब्द अन्य भाषाओं के हैं। इन भाषाओं में उर्दू, फरसी, ब्रज व देशज सहित अन्य कई क्षेत्रीय भाषाएं शमिल हैं। 
     हिंदी किसी भी किस्म में जड़ नहीं है, यह हर अवस्था में चेतन-व्यावहारिक है। हम हिंदी लिखें या हम हिंदी कहें, उसका अपनापन और मिठास कानों में सहजता से घुलते हैं, शब्दों में विनम्रता से आकार पाते हैं। वहीं आज गूगल तथा अन्य सोशल साइट्स पर भी हिंदी में लिखने, पढऩे और खोजने की सुविधा मौजूद है। यहां भी हिंदी उसी रूप में प्रचलित है, जैसी कि अन्य जगहों पर। अन्य भाषा के आम शब्दों के साथ खास तरीके से। अन्य भाषा के शब्दों ने हिंदी की यात्रा को कई पड़ाव और नए आयाम दिए हैं। इससे हिंदी पूरे हिंदुस्तान की भाषा बन सकी है। यह किसी एक समुदाय, जाति या वर्ग विशेष तक सिमटकर नहीं रही। आखिर में यही कहा जा सकता है कि हिंदी पूरे देश के जनों से पूरे देश की भाषा बन सकी है। इसमें अन्य भाषाई शब्दों ने इसके आंचल को और सुनहरा बनाया है, उसे फलक पर चमकने में सक्रिय भूमिका अदा की है। हिंदी को और अधिक समर्थ बनाने के लिए अन्य भाषा के शब्दों को जगह देते हुए इसके प्रति अधिक गंभीर रुख अपनाया जाना चाहिए।
     ना होती अन्य भाषाएं, तो ना होती कभी हिंदी
     हिंदी है गर ललाट तो, अन्य भाषाएं उसकी बिंदी...

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