Saturday, May 9, 2015

गंगा भी हिंदी, जमुना भी हिंदी...
अमित बैजनाथ गर्ग
लब्धप्रतिष्ठ शायर मुनव्वर राना ने कहा था, लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है/मैं उर्दू में गजल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है... हिंदी का भी आलम भी ऐसा ही है। यह भाषा के रूप में एक ऐसा महासागर है, जिसमें अन्य भाषाएं सहजता से प्रवाहित होती रहती हैं, वह भी अपना वजूद खोए बिना। शायद यह आधुनिक युग का प्रभाव है या फिर बढ़ती जरूरतें कि एक भाषा की दूसरी भाषा में आवाजाही बढ़ रही है। हालांकि इससे एक सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि भाषाओं के इस सम्मिश्रण में उनका प्रभाव कम हो सकता है या फिर वे अपना वजूद खो सकती हैं। इस विचार पर अपनी बात रखने के लिए देश में दो धड़े बन गए हैं। एक को लगता है कि इससे भाषाएं अपना वजूद खो देंगी, दूसरे को लगता है कि यह अच्छा है। इससे भाषाएं और पुष्ट होंगी।
     जहां तक मैं इस बात पर अपने विचार रखता हूं तो मुझे हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रचलन आशीर्वाद लगता है। इसकी एक वजह मैं यह मानता हूं कि हिंदी भारत के अधिकतर लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। देश की आधी से अधिक आबादी हिंदी में अपनी बात साझा करना ज्यादा प्रभावी-आसान समझती है। यह भी काबिलेगौर है कि जिस तरह दुनिया में हिंदी का प्रभाव बढ़ रहा है, उसी तरह देश में हिंदी भाषा में अन्य शब्दों का प्रचलन और प्रभाव, दोनों बढ़ रहे हैं। देश की आजादी से अब तक का ही नहीं, बल्कि उससे पहले भी भाषाई बदलाव होते रहे हैं। आजादी से पहले मुगलकाल में मुशल शासक अकबर के जमाने में पहले-पहल अदालतों और दफ्तरों में काम हिंदी में होता था, लेकिन उनके नवरत्न राजा टोडरमल ने हिंदी की जगह फारसी को काम-काज की भाषा बना दिया। इससे फारसी का ज्ञान भी अनिवार्य होता चला गया। मसलन, शुरू में हिंदी में फारसी के शब्द आने लगे, बाद में हिंदी की जगह फारसी लेने लगी। 
     भारत में जन्मी और पली-बढ़ी हिंदी देश की संस्कृति को भी बयां करती है। उसने जहां धर्म, जाति और क्षेत्रों की सीमाओं को लांघा है तो वहीं खुसरो, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रसखान, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद और निराला सरीखे अलग-अलग मजहबों के रचनाकारों को एक मंच साझा करने का मौका दिया है। हिंदू संतों की पदयात्रा और उनकी साखियों, पदों और वाणियों के साथ-साथ सूफी फकीरों की नज्में, गजलें और कव्वालियां लोगों की जुबां पर हिंदू-उर्दू के मिले-जुले रूप में सजी-संवरी हैं। हिंदी अन्य भाषाओं के जरिए व्यक्तियों, समुदायों और संस्थाओं के बीच रिश्तों का पुल बनाने में कारगर साबित हुई है। 
     देश की आजादी के वास्ते जब महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत लौटकर आए तो उन्होंने पूरे देश का दौरा किया। इस दौरे में उन्होंने हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाएं बोलने वाले लोगों को भी बेहद करीब से देखा-समझा। असल में बापू बेहद सरल हिंदी चाहते थे, जिसे आम बोलचाल में प्रयुक्त किया जा सके। उनके शब्दों में 'हिंदी उस भाषा का नाम है, जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं। हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है।...' गांधीजी ने हिंदी का वह रूप इस्तेमाल किया, जिसमें अन्य भाषाओं के आम शब्द भरपूर मात्रा में मौजूद थे। 
     आजादी के बाद गांधीजी व अन्य शख्सियतों के अथक प्रयासों से हिंदी राजभाषा बनीं। भारतीय संसद ने 14 सितंबर, 1949 को इसे राजभाषा का दर्जा दिया। संविधान के अनुच्छेद 343 में 'राजभाषा' के रूप में उल्लिखित और अनुच्छेद 351 में वर्णित संविधान की 8वीं अनुसूची में यह समाविष्ट है। हिंदी न केवल पचास करोड़ से अधिक जनों की मातृभाषा है, बल्कि साहित्यिक भाषा भी है। इसके साथ ही यह कई जातियों-समुदायों में भी प्रचलित है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई अन्य भाषाएं भी देवनागरी की हिंदी के बेहद निकट हैं। बोलचाल की ही नहीं, लेखन की हिंदी में भी कई शब्द अन्य भाषाओं के हैं। इन भाषाओं में उर्दू, फरसी, ब्रज व देशज सहित अन्य कई क्षेत्रीय भाषाएं शमिल हैं। 
     हिंदी किसी भी किस्म में जड़ नहीं है, यह हर अवस्था में चेतन-व्यावहारिक है। हम हिंदी लिखें या हम हिंदी कहें, उसका अपनापन और मिठास कानों में सहजता से घुलते हैं, शब्दों में विनम्रता से आकार पाते हैं। वहीं आज गूगल तथा अन्य सोशल साइट्स पर भी हिंदी में लिखने, पढऩे और खोजने की सुविधा मौजूद है। यहां भी हिंदी उसी रूप में प्रचलित है, जैसी कि अन्य जगहों पर। अन्य भाषा के आम शब्दों के साथ खास तरीके से। अन्य भाषा के शब्दों ने हिंदी की यात्रा को कई पड़ाव और नए आयाम दिए हैं। इससे हिंदी पूरे हिंदुस्तान की भाषा बन सकी है। यह किसी एक समुदाय, जाति या वर्ग विशेष तक सिमटकर नहीं रही। आखिर में यही कहा जा सकता है कि हिंदी पूरे देश के जनों से पूरे देश की भाषा बन सकी है। इसमें अन्य भाषाई शब्दों ने इसके आंचल को और सुनहरा बनाया है, उसे फलक पर चमकने में सक्रिय भूमिका अदा की है। हिंदी को और अधिक समर्थ बनाने के लिए अन्य भाषा के शब्दों को जगह देते हुए इसके प्रति अधिक गंभीर रुख अपनाया जाना चाहिए।
     ना होती अन्य भाषाएं, तो ना होती कभी हिंदी
     हिंदी है गर ललाट तो, अन्य भाषाएं उसकी बिंदी...
बात निकली है तो दूर तलक जाएगी... 
अमित बैजनाथ गर्ग 
लगता है हमारे जन-प्रतिनिधियों की आंखों का पानी ही मर गया है, तभी तो साल 2014 को राजस्थान में निश्चित तौर पर नेताओं की बदजुबानी के लिए याद किया जाएगा। गाली-गलौज करने, दबंगई दिखाने वाले इन नाकाबिल नेताओं को विधानसभा भेजने वाला मतदाता भी खुद को ठगा सा महसूस करता होगा! 'पार्टी विद् डिफरेंस' का दावा करने वाली भाजपा के नेता इतने डिफरेंट निकलेंगे, ये शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था! कल तक जिस मतदाता से वोट मांगने के लिए ये हमारे नेता पैर छूने तक के लिए तत्पर रहते थे, आज जीतने के बाद उसी के हाथ-पैर तोडऩे की बात करते हैं। 
     कोटा के रामगंज मंडी विधानसभा क्षेत्र से विधायक और गुर्जर नेता प्रहलाद गुंजल ने कोटा सीएमएचओ को धमकाने के बाद मिली निलंबन की सजा से भी सबक सीखा हो, ऐसा लगता नहीं है। एक तरफ उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को मीडिया को उसकी औकात दिखाने का भाषण दे डाला तो दूसरी तरफ उनके समर्थक ने फिर सीएमएचओ को धमकाया। कोटा के ही लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र से विधायक भवानी सिंह राजावत तो किसी फिल्म के खलनायक की माफिक दिखाई दिए। उन्होंने अपने ही क्षेत्र के मतदाताओं को उनकी जगह दिखा डाली। हाल ही में संपन्न हुए नगर निगम चुनाव के दौरान एक नुक्कड़ सभा में राजावत मतदाताओं से कह रहे थे कि वोट नहीं दिए तो बस्ती खाली करवा दूंगा। सामान फिंकवाऊंगा और कोई माई का लाल बचाने नहीं आएगा। वहीं प्रताडऩा के एक प्रकरण में मर्जी की कार्रवाई नहीं होने पर जालोर-सिरोही से भाजपा सांसद देवजी पटेल ने आबूरोड थाना प्रभारी सीताराम खोजा का दिमाग खराब बता दिया। बकौल पटेल, इसका (थानाधिकारी) तो दिमाग खराब है, कुछ समझता ही नहीं है। शायद पटेल को पता नहीं है कि जिन व्यक्तियों का दिमाग खराब हो, उन्हें कम से कम सरकारी सेवा में तो नहीं लिया जाता!  
     जनजाति विकास मंत्री नंदलाल मीणा भी किसी से कम नहीं निकले। अखबार में छपी एक खबर के बाद मीणा ने एक व्यक्ति को जमकर अपशब्द कहते हुए धमकी दी कि प्रतापगढ़ आऊंगा तो हाथ-पांव तोड़ दूंगा। मजे की बात देखिए, वो बेचारा व्यक्ति तो दुबई में रहता है। उधर, बूंदी जिले की नैनवां नगरपालिका के अध्यक्ष प्रमोद जैन का पुलिस उपाधीक्षक वीरेंद्र जाखड़ से गाली-गलौच करने का मामला सामने आया है। कुछ समय पहले क्षेत्र में कफ्र्यू के दौरान पालिकाध्यक्ष ने फोन पर जाखड़ से टोडापोल में पुलिस के महिलाओं से मारपीट का आरोप लगाते हुए गाली-गलौज कर देख लेने की धमकी दी। इधर, चाल-चरित्र-चेहरे की बात करने वाली कांग्रेस के सिरोही जिला प्रमुख चंदन सिंह देवड़ा का भी जनसंपर्क अधिकारी मुकुल मिश्रा से सरकारी बैठक में बदतमीजी करने और धमकाने का मामला सामने आया है। 
     ये कुछ घटनाएं तो महज बानगीभर हैं। ना जाने लोगों के डर के चलते ऐसी कितनी ही घटनाएं सामने नहीं आ पाई होंगी! यह भी कह सकते हैं कि हमारे नेताओं के कितने काले कारनामे सामने आने से रह गए! इन नेताओं को कभी शर्म आएगी भी या नहीं, यह कहना बहुत मुश्किल है। इतना जरूर है कि और हम ज्यादा दिन तक बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं रह सकेंगे। वक्त रहते सरकार, प्रशासन और उससे भी कहीं आगे प्रदेश का आम आदमी लोकतंत्र के इस अपमान पर अब तो अपनी चुप्पी तोड़े। कवि शमशेर के शब्दों 'बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...' को याद कर हम अपनी बात रखना सीखें! सरकार, प्रशासन और कानून अपना काम करें और मतदाता अपना। 


अमित बैजनाथ गर्ग 
ए-56, सुदामा नगर, तारों की कूट, टोंक रोड,  
जयपुर, राजस्थान, पिनकोड-302029 
मो.: 07877070861 

Thursday, October 21, 2010

निजी स्वार्थों ने ली गुरु-शिष्य परंपरा की 'बलि'

कहते हैं कि जिसके जीवन में गुरु नहीं उसका जीवन शुरू नहीं। भारत में गुरु-शिष्य परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। इसके पोषित-पल्लवित होने में गुरुकुलों की शिक्षण व्यवस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य, चंदगुप्त मौर्य-चाणक्य से लेकर विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक ऐसे बहुत से गुरु-शिष्य हुए, जिन्होंने न केवल इस आदर्श तथा दीर्घ परम्परा को आगे बढ़ाया बल्कि नए आयाम भी दिए। फिर भला उस एकलव्य को कौन भूल सकता है, जिसे द्रोणाचार्य ने शिष्य नहीं माना लेकिन, उसने द्रोणाचार्य को गुरु रूप में न केवल अंगीकार किया। बल्कि, उनकी मूर्ति स्थापित कर धनुर्विधा भी सीखी और उनके मांगने पर अंगूठा गुरु दक्षिणा में दे दिया। वर्तमान में यह परंपरा न केवल बहुत पीछे छूट रही है, बल्कि कलंकित भी हो रही है। आए दिन शिक्षकों का विद्यार्थियों के साथ तथा विद्यार्थियों के अपने गुरु के प्रति दुव्र्यवहार की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं। दुव्र्यवहार के मामले कुछ दशक पहले भी होते थे लेकिन, वे स्कूलों में जातिगत संबोधन तक सीमित थे। फिलवक्त जिस प्रकार के मामले सामने आ रहे हैं उनमें अधिकतर अश्लीलता तथा नैतिक मर्यादाओं के हनन के हैं। आज न तो गुरु-शिष्य परंपरा बची है और न ही इसमें विश्वास रखने वाले गुरु और शिष्य। समीक्षकों का मानना है कि अगर इस परंपरा को जिंदा रखना है तो समय रहते गुरु व शिष्य दोनों, को ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आना होगा। ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को संस्कारिक रूप में और आगे ले जाया जा सके। किसी भी शिष्य का अपने गुरु में विश्वास तथा गुरु की मान्यताओं, विचारों को सीखते हुए उन्हें आगे बढ़ाना उस शिष्य का कार्य भी है और धर्म भी। भारतीय संस्कृति में इसे ही गुरु-शिष्य परंपरा माना गया है। गुरु-शिष्य परंपरा केवल मात्र कोरी परंपरा ही नहीं है, बल्कि विविध संस्कृतियों के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढऩे का एक सशक्त माध्यम भी है। सदी के सिनेमाई महानायक अमिताभ बच्चन ने भी कई बार अपने ब्लॉग तथा समारोहों के दौरान इस परंपरा का उल्लेख किया है। एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को वर्तमान में गुरु-शिष्य परंपरा का सही अर्थों में निर्वाहक कहा था। इस दौरान बच्चन ने इस परंपरा को जारी रखने के लिए आह्वान भी किया था। इतिहास साक्षी है कि 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति बने तब उनके प्रशंसकों ने उनके जन्मदिवस (पांच सितम्बर) को शिक्षक दिवस के रूप में बनाने का निर्णय लिया। बकौल डॉ. राधाकृष्णन, शिक्षक होने से ही कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण अर्जित करना पड़ता है। इसमें शिक्षा को व्यवसायीकरण से बचाना होगा। देशभर के साथ स्थानीय मंचों पर कलाकारों-संगीतमर्मज्ञों ने अनेकों बार इस समस्या को उठाया है। अधिकतर का मानना है कि वर्तमान दौर में शिष्यों की गुरुजनों के प्रति वह शिद्दत तथा समर्पण भावना नहीं रही, जो पहले कभी हुआ करती थी। वे आगाह करते हैं कि समय रहते हम नहीं चेते तो गुरू-शिष्य परम्परा को विलुप्त होने से बचा पाना बेहद मुश्किल होगा।

एमपी में भ्रष्‍टाचार गुनाह नहीं, सम्‍मान की बात!

: दोनों तिकड़मबाज मीडिया को भी डराने-धमकाने से नहीं डरे : राजनीति का स्तर अब गिरने लायक भी नहीं रहा
मुख्‍यमंत्री पद पर विराजित होते ही राजनीति के दिग्गज तथा जनता को सुनहरे सपने दिखाने में माहिर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की जोरदार हुंकार भरी थी। शायद, उस समय उन्हें यह भान नहीं था कि इस मुहिम में उनके वे करीबी भी धर लिए जाएंगे, जिन्होंने प्रदेश की सत्ता के इस शिखर पद पर आरुढ़ होने में उनकी खासी मदद की। या यूं कहें कि अगर वे करीबी नहीं होते तो शायद शिवराज सिंह चौहान आज इस पद पर सुशोभित नहीं होते। खैर, राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में जो धमा-चौकड़ी मची हुई है, उसमें नीति जैसे शब्द निर्मूल साबित हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के छोटे से गांव-कस्बों में आज के भूखे-नंगे किसानों की सोना उगलती जमीनों से लेकर इंदौर की बेशकीमती रिहायशी जमीनों तक, जो हथियाने-कब्जाने का खेल चला, उसने चौहान की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को न केवल आईना दिखा दिया बल्कि सफेदपोश नेताओं की काली करतूतों का एक और चिट्ठा भी खोल दिया। करोड़ों रुपए के इंदौर जमीन घोटाले तथा ऐसे ना जाने कितने स्याह कारनामों को अंजाम दे चुके चौहान के बेहद घनिष्ठ तथा नामजद आरोपी उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और उनके मातहत भाजपा विधायक रमेश मेंदोला ने जिस प्रकार से चोरी करने के बाद सीना जोरी की, उससे एक बात तो स्पष्ट हो गई कि राजनीति का स्तर अब गिरने लायक भी नहीं रहा! घोटालों में नाम जाहिर होने के बाद डरना तो बहुत दूर उल्टे आरोप साबित करने वालों की ही जान पर बन आई है। अपनी ताकत की धौंस दिखाने वाले ये दोनों तिकड़मबाज मीडिया को भी डराने-धमकाने से नहीं डरे। अब तक अमूमन ऐसा माना जा रहा था कि नेता भले किसी से डरे या नहीं लेकिन, मीडिया से भय खाते हैं। विजयवर्गीय तथा मेंदोला की मीडिया को गरियाने की हरकतों ने इन धारणाओं को भी तोड़ दिया। पोल खोलने वाली मीडिया को भी ठेंगा दिखाने की एक नई परम्परा प्रारंभ करने के लिए इन दोनों को जितनी बधाईयां दी जाएं, उतनी कम हैं। आखिर काम ही इतना कमाल का जो किया है! इस पूरे प्रकरण में जो हुआ और जिस प्रकार इंदौर मीडिया ने इसे प्रकाशित-प्रसारित किया, उसने एक बात स्पष्ट कर दी कि भले ही लोकतंत्र का चौथा पाया आज उद्योग का दर्जा प्राप्त कर चुका है, बावजूद सामाजिक सरोकारों के लिए वह आज भी सजग है। बात करते हैं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की, जिन्होंने प्रदेशवासियों से भ्रष्टाचार के समूल नाश के वादे तो बड़े-बड़े किए थे लेकिन जब उन्हें हकीकत में बदलने की घड़ी आई तो वादे ही याद नहीं रहे। जहां एक ओर इन दोनों नेताओं ने मीडिया को डरा-धमकाकर यह साबित करने की कोशिश की है कि राजनीति के आगे सभी बौने हैं। भले ही देश की कमजोर राजनीति और राजनेताओं ने हर मौके पर देश को शर्मसार किया है। अपनी बेदाग छवि के लिए पहचाने जाने वाले चौहान के सफेद कुर्ते पर कैलाश-मेंदोला के नाम की कालिख तो पुती ही है। साथ ही इस प्रकरण पर चौहान की चुप्पी के चलते वे कटघरे में भी खड़े दिखाई देते हैं। कुल मिलाकर अब देखना यह है कि इन कमजोर तथा भ्रष्ट नेताओं को जनता-मीडिया सबक सिखा पाती है या नहीं?

क्या वाकई सच्‍चा लोकतंत्र चुनने जा रहे हैं?


राजस्थान में होने हैं निकाय चुनाव के लिए मतदान : 126 नगरपालिका के लिए होने हैं चुनाव : मतदान के अधिकार का उपयोग करना नहीं भूलें मतदाता : 
लोकतंत्र के अर्थ तथा उसकी महत्ता को व्यक्त करते हुए पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि जो शासन जनता का, जनता के लिए तथा जनता की ओर से किया जाता है, वही लोकतंत्र है। शायद इस कथन के जरिए लिंकन आम आदमी को विधानसभा-संसद जैसी खास जगहों पर काम करते हुए सुशासन होने तथा लाने का सपना संजोए हुए थे। अमरीका जैसे संप्रभु देश में आम आदमी शासन में है या नहीं, ये तो अमरीकीवासी ही तय कर सकते हैं। लेकिन महात्मा गांधी के सपनों के देश भारत में तो कमोबेश आम आदमी को सत्ता के खजाने की चाबी आज तक तो नहीं मिली है। आगे मिलेगी या नहीं, इस सवाल का जबाव तो भविष्य के गर्त में छिपा है। खैर, जो भी हो फिलवक्त संसद-विधानसभा पर चर्चा करने की अपेक्षा हम बात करते हैं राजस्‍थान में होने वाले निकाय चुनावों की। प्रदेश की 126 नगरपालिकाओं में सरकार चयन के लिए आगामी 18 अगस्त को चुनाव होने जा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी प्रदेश का आम आदमी निकाय चुनावों के जरिए, जहां एक ओर जनप्रतिनिधियों की ओर से पूर्व में किए गए विकास कार्यों के पूरे होने की बाट जोह रहा है, वहीं दूसरी ओर अपने जेहन में उन नई-नवेली योजनाओं की उम्मीदें भी पाले बैठा है, जो उसके रहन-सहन तथा जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाएं। गौरतलब है कि अन्य राज्यों की तरह राजस्थान के नगरपालिका क्षेत्र भी मतों की खरीद-फरोख्त तथा राजनैतिक लॉबिंग-लाइजनिंग के लिए चहुंओर जाने जाते हैं। विकास कार्यों के लिए वर्षों से उपेक्षा के शिकार रहे प्रदेश के अधिकतम पालिका क्षेत्रों के भविष्य का फैसला यहां का मतदाता 18 अगस्त को करने जा रहा है, जिस पर अंतिम मुहर 20 अगस्त को लगेगी। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रदेशवासियों के सुकून तथा विकास के 5 वर्षों का खाका भी इसी दिन तैयार होना है। प्रदेश की अधिकतम नगरपालिकाएं 50 से भी अधिक वर्ष पहले अस्तित्व में आई थीं। इतने वर्षों के इस लम्बे अंतराल में हमने क्या खोया और क्या पाया? शायद इसका चिंतन-मनन करने के लिए न तो हमने आज तक जहमत उठाई और न ही कभी विकास के पायदान पर क्षेत्र कितना आगे बढ़ा इसकी चिंता की। भले ही संसद-विधानसभा चुनावों में देश का आम आदमी परिणाम को लेकर अंत तक पशोपेश की स्थिति में रहता हो। लेकिन, नगरपालिका का मतदाता यहां का परिणाम मतगणना होने से पूर्व ही घोषित कर देता है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण यहां होने वाला मतदान का तरीका है। इतिहास साक्षी है कि चाहे देश हो या फिर प्रदेश, जहां पर भी धनबल और बाहुबल से चुनाव लड़े गए हैं, वहां के वाशिंदों को आज तक मूलभूत सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हुई, फिर विकास की आंधी उडऩे और गंगा बहने की बात करना तो निहायत बेमानी है। पालिका क्षेत्रों के विकास में राजनैतिक दलों ने भी समय-समय पर रोड़े अटकाए हैं। यह भी एक कड़वा सच है, जिसे हम चाहकर भी झुठला नहीं सकते। इन दलों ने भी अपनी मनमर्जी चलाकर ऐसे प्रत्याशी थोपे, जिन्होंने चुनाव लडऩे से पूर्व क्षेत्रवासियों को विकास के सब्ज-बाग तो जमकर दिखाए, लेकिन जब उन्हें पूरा करने का समय आया तो ये प्रत्याशी मतदाताओं को ढूंढऩे से भी नहीं दिखाई दिए। 
दोस्तों, इसके जरिए मैं प्रदेशवासियों से केवल दो बातें करना चाहता हूं। पहली, तो ये कि जिस तरह हम दैनंदिन दिनचर्या तथा सैर-सपाटे जैसी मनोरंजक गतिविधियों में भाग लेना नहीं भूलते हैं। उसी तरह हम 18  अगस्त को भारतीय संविधान प्रदत्त अपने मतदान के अधिकार का उपयोग करना भी नहीं भूलें, भले ही कुछ भी क्यों न हो जाए। दूसरी, प्रदेश के धनकुबेर प्रत्याशियों ने पिछले 50 से भी अधिक वर्षों से मतदाताओं को विभिन्न हथकंडों के जरिए अपनी ओर आकर्षित किया है। मैं केवल ये नहीं कह रहा हूं कि उन्होंने धन के जरिए हमें प्रभावित किया है बल्कि एक कड़वा सच ये भी है कि जितना उन्होंने प्रभावित किया है, उससे कई गुणा अधिक हम प्रभावित हुए हैं। आंचलिक क्षेत्रों के बुजुर्गों को अक्सर ये कहते सुना जाता था कि आत्मा और जमीर न कभी बिकते हैं और न ही मरते हैं। इस धारणा को आज भी देश के समग्र हिन्दी साहित्य में पढ़ा जा सकता है। लेकिन, महज कुछ दशक पहले हिन्दी के एक ख्यातिनाम शायर ने बहुत खूब कहा कि दो रुपए ज्यादा दे दो तो खुदा भी यहां बिक जाता है। फिर ये जमीर और आत्मा चीज ही क्या हैं? साथियों, निकाय चुनाव क्षेत्र के विकास की धवल उम्मीदें हैं, जिन्हें किसी भी कीमत पर न तो मैला कीजिए और न ही किसी को मैला करने दीजिए। रही बात चुनावी दलों की क्षेत्र के विकास की सोच की तो उसे उम्मीदवारों के चयन के जरिए ही आसानी से समझा जा सकता है। अपने बेशकीमती मताधिकार का हर हाल में प्रयोग करने के साथ ही हमको ये भी तय करना है कि शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य तथा अन्य मूलभूत आवश्यकताएं जो हमारा संवैधानिक अधिकार भी है, हमें मिलेंगी या नहीं? राजनीतिक दल, लोभ-लालच, भाई-भतीजावाद तथा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव से ऊपर उठकर मत का केवल प्रयोग करना ही अपने अधिकार का इस्तेमाल करना नहीं है बल्कि, सही जगह पर सही व्यक्ति के लिए मत के इस्तेमाल करने में ही उसके उपयोग की सार्थकता निहित है। मत का प्रयोग कर न केवल आप अपनी निकाय सरकार का चयन करने जा रहे हैं बल्कि, क्षेत्र के विकास की भी नई इबारत लिखने जा रहे हैं। जिम्मेदार नागरिक होने की हैसियत से आपसे गुजारिश करता हूं कि हर हाल में अपने मत का प्रयोग करें और तमाम दुर्भावनाओं तथा लोभ-लालच को दरकिनार कर निकाय चुनावों के राजनैतिक गलियारों में उन प्रत्याशियों को पहुंचाए जो न केवल आम आदमी के दर्द को समझे बल्कि, उसके हक में अपनी आवाज बुलंद भी करें।

बिगड़ गए सत्ता के गणित

: संदर्भ राजस्थान निकाय चुनाव परिणाम : 126 निकायों में भाजपा के 58, कांग्रेस के 49 तथा अन्य दलों के 19 चेयरमैन : परिणामों से कांग्रेस मायूस जबकि कमल खिला 
आखिर वही हुआ, जिसके लिए राजस्थान की राजनीति तथा मतदाताओं को जाना जाता है। एक बार फिर प्रदेश के सुधि मतदाताओं ने प्रदेश के प्रमुखी विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के हाथों सत्तानशीं कांग्रेस को करारी हार का सामना करवाया। प्रदेश के 126 निकायों में सरकार चयन के लिए गत 18 अगस्त को हुए चुनावों के परिणाम शुक्रवार को जारी हुए। इनमें मतदाताओं ने भाजपा को 58, कांग्रेस को 49 तथा अन्य दलों को 19 निकायों में सरकार बनाने का अधिकार दे दिया। 
इस बार निकाय चुनावों में मतदाताओं को दो नई चीजों से रूबरू होने का अवसर मिला। मसलन, प्रदेश में पहली बार निकाय सरकार के चयन में वोटिंग के लिए इलेक्ट्रोनिक मशीनों का इस्तेमाल किया गया। दूसरा मतदाताओं को सीधे चेयरमैन चुनने की शक्ति भी इस बार ही मिली। इससे पहले मतदाता केवल पार्षदों का चयन करते थे और फिर विजयी पार्षद चेयरमैन चुनते थे, जिसमें जमकर खरीद-फरोख्त होती थी। लेकिन, इस बार चेयरमैन चुनाव का अधिकार सीधे जनता के हाथों में होने से खरीद-फरोख्त पर कुछ हद तक अंकुश भी देखने को मिला। ये बात और है कि लिवाली-बिकवाली की सारी कसर पार्षदों ने पूरी कर दी। परिणाम ये रहा कि प्रदेश के निकायों में एक वोट की कीमत दस हजार रुपए के आंकड़े को भी पार कर गई। निकाय चुनावों का एक सुखद पहलू ये भी रहा कि इस बार गत वर्षों के मुकाबले हिंसा का स्तर भी अपेक्षाकृत कम ही रहा। वोटिंग प्रतिशत में खासी वृद्धि दर्ज नहीं हुई, जिससे मतदाताओं की रुचि-अरुचि पर टिप्पणी करना श्रेयस्कर नहीं दिखाई देता। कुल मिलाकर जिस तरह का परिणाम जनता ने दिया है, उसमें विभिन्न निकायों में तो खुद मतदाताओं को भी हैरानी हो रही है। इसका सीधा सा कारण बागी प्रत्याशी हैं, जिन्होंने हार-जीत के तमाम समीकरणों की राजनीतिक गणित बिगाड़ कर रख दी। 
अब बात करते हैं राजनीतिक दलों की। प्रदेश में सत्तारुढ़ दल कांग्रेस के खेमे में खलबली मची हुई है। 126 निकायों में से कांग्रेस के केवल 49 प्रत्याशियों को ही चेयरमैन की कुर्सी नसीब हुई है। विपक्षी दल भाजपा से मिली करारी हार को कांग्रेस काय्रकर्ता पचा नहीं पा रहे हैं। इसके दो बड़े कारण हैं पहला, केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है और दूसरा प्रदेश में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से सरकार चला रही है। ऐसे में जहां एक ओर कांग्रेस बेहतर परिणामों के लिए आश्वस्त थी वहीं दूसरी ओर प्रदेश के जनमानस में भी ये धारणा बलवती थी कि निकाय सरकारों में कांग्रेस भारी बहुमत से जीतेगी। लेकिन, जनतंत्र का कमाल देखिए। जो कुर्सी पर हैं उन्हें नीचे पटक दिया और जो नीचे पड़े थे उन्हें कुर्सी पर बैठा दिया। अब बात भाजपा की, जिस तरह के चुनावी परिणाम आए हैं वे भाजपा की उम्मीदों से कहीं अधिक हैं। 58 सीटों पर चेयरमैन भाजपा के प्रत्याशी होंगे, ये शायद भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा। कहने को तो प्रदेश के आला भाजपा नेता इन परिणामों को आशानुरूप बता रहे हैं। चुनावी घमासान के भाजपा के पक्ष के परिणामों ने पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कद को भाजपा आलाकमान की नजर में बहुत अधिक बढ़ा दिया है, इसमें कोई संशय नहीं है। राजे की व्यक्तिगत राजनीति इस बार भी मतदाताओं पर अपना जादू बिखेर गई, जबकि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के खेमे की पकड़ कमजोर ही रही। कुल मिलकार जनता-जनार्दन ने इन चुनावों में मठाधीश बनकर घूमने वाले नेताओं को अपनी मुकम्मल जगह दिखा दी। जिसके चलते जहां भारी-भरकम संख्या में नए तथा युवा चेहरों को मौका मिला वहीं वरिष्ठों को अपर्नी कुर्सी बचाने में सफलता कमोबेश कम ही मिली। खैर, परिणाम जो भी रहे हों लेकिन, एक बात साफ है कि जनतंत्र में जनता से बढ़कर कोई नहीं है। यह धारणा निकाय सरकार के इन चुनावी परिणामों से और पुष्ट हो गई है। जय हो जनतांत्रिक देश भारत के मतदाताओं की।

कब तक चुकानी पड़ेगी सुरक्षा की कीमत?

: पूर्वोत्‍तर में लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन : सशस्‍त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम का दंश झेलना मजबूरी : सेना और उग्रवाद के बीच में झूल रहे हैं लोग 
देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में सात बहनों के नाम से विख्यात सात राज्यों असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम  में और सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर पिछले 51 वर्षों से जारी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 (एएफएसपीए) का दंश तब से लेकर आज तक वहां के आम नागरिक झेल रहे हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 की आड़ में लगाए गए इस अमानवीय कानून के बदौलत सेना को सुरक्षा के नाम पर खुल्लम-खुल्ला मनमानी करने का वैध सरकारी लाइसेंस मिल गया है।
इस कानून के बल पर कुछ सैनिकों की काली करतूतों ने देश की आन-बान-शान कही जानेवाली भारतीय सेना को कई बार शर्मसार किया है। हालांकि इस कानून का विरोध शुरू से हो रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में विरोध के स्वर अधिक मुखर हुए हैं। पिछले 50 वर्षों के दौरान सैनिकों की ओर से इस कानून के तहत कार्रवाई के नाम  पर जो मनमाना और वहशियाना रुख अपनाया गया, उसके कुछ प्रमुख उदाहरणों से कल, आज और कल तीनों के परिप्रेशर में इस कानून की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान खड़े होते हैं। 1991 में असम में ऑपरेशन राइनो में सैन्य कार्रवाई के दौरान सैकड़ों मासूम ग्रामीणों की नृशंस तरीके से हत्या कर दी गई। मई, 1994 में सैन्य कार्रवाई के दौरान गन पॉइंट पर महिलाओं से बलात्कार की शर्मनाक घटना ने ना सिर्फ भारतीय सैनिकों के काले कारनामों की कलई खोली बल्कि इस कानून को ढाल बनाकर की जा रही अमानवीय कार्रवाई का नंगा सच उजागर कर दिया।
5 मार्च, 1995 को नागालैण्ड के कोहिमा में 16वीं राष्ट्रीय राइफल्स, सीआरपीएफ और असम  राइफल्स की संयुक्त कार्रवाई में 'ऑपरेशन तलाशी' चलाया गया। ऑपरेशन के दौरान जीप का टायर फटने पर मदांध सैनिकों ने बम हमले का अंदेशा लगाया। महज अंदेशे को आधार बनाकर सैनिकों ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरु कर दी,  कार्रवाई के दौरान की गई यह गैर जिम्मेदाराना हरकत और कुछ नहीं बल्कि इस कानून के तहत सेना को दिए गए विशेषाधिकारों का सच है, जिसके परिणामस्‍वरूप सात निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इतना ही सात नाबालिगों सहित कुल 22 लोगों को गंभीर चोटें आईं।
मार्च,1995 में ही नमतिरम (मणिपुर) में 21वीं राजपूताना राइफल्स ने 5 गांवों में सैन्य कार्रवाई के दौरान कई महिलाओं से बलात्कार की शर्मनाक घटना को अंजाम दिया। अप्रैल, 1995 को पश्चिमी त्रिपुरा के एक गांव में सीमा चौकी के पास सवारी कर रहे एक ग्रामीण को महज शक के आधार पर गोली मार दी गई। ऐसा नहीं है कि इन अमानवीय कार्रवाईयों का वहां रह रहे लोगों ने विरोध नहीं किया। समय-समय आम लोगों के विरोध को बड़ी निर्ममता से कुचला गया। जब-जब उन्होंने विरोध किया तब-तब सेना की कार्रवाईयां और अधिक तेज होती गईं। सेना का रवैया भी पहले की अपेक्षा और अधिक क्रूर होता गया, जिसके कारण इन नागरिकों का जीना मुहाल हो गया। 1997 में ओईनाम (मणिपुर) में ग्रामीणों के खिलाफ की जा रही हिंसा और सेना के अत्याचारों का विरोध करने पर सैनिकों ने 3 महिलाओं का बलात्कार कर 15 ग्रामीणों की सरेआम निर्मम हत्या कर दी। इतना ही नहीं बिजली के झटकों से कई लोगों को विकलांग बनाकर नारकीय जीवन जीने के लिए छोड़ दिया गया।
पिछले वर्ष यहां की महिलाओं ने सैनिकों के बलात्कार की घटनाओं और निर्मम सैन्य कार्रवाईयों से तंग आकर सेना के खिलाफ नग्न प्रदर्शन किया, लेकिन राजनैतिक कमजोरी और हुक्मरानों की व्यवस्था की दुहाई के सामने सब बेकार साबित हुआ। खास बात यह है कि इस कानून के तहत सेना के कार्रवाई के दौरान भीषण तबाही मचाने वाले उपकरण मोर्टार के उपयोग पर प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन सेना ने किसी भी मौके पर मोर्टारों के उपयोग में कोई परहेज नहीं किया। सेना के शांति और सुरक्षा व्यवस्था बनाने के अधिकारों के सामने पूर्वोत्‍तर के आम आदमी के अधिकार गौण हो गए।
देश के संविधान में अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त प्रत्येक भारतीय नागरिक के जीने के अधिकार व आजादी की गारंटी के नाम पर पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिक अपने आप को ठगा सा महसूस करते हैं। इस कानून के आधार पर सैनिकों को किसी पर भी कार्रवाई करने की खुली छूट की परिणति के परिणामस्‍वरूप कहीं न कहीं यहां के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है। यहां रहने वाले नागरिकों की मन:स्थिति देखिए, एक तरफ उन्हें उग्रवादियों का भय खाए जा रहा है तो दूसरी तरफ सैन्य कार्रवाई के नाम पर सैनिकों के जुल्मों-सितम का डर सता रहा है। अब सवाल यह है कि कब तक इन नागरिकों को इस काले कानून की विष-बेल के सहारे जीना पड़ेगा?