Thursday, October 21, 2010

कब तक चुकानी पड़ेगी सुरक्षा की कीमत?

: पूर्वोत्‍तर में लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन : सशस्‍त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम का दंश झेलना मजबूरी : सेना और उग्रवाद के बीच में झूल रहे हैं लोग 
देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में सात बहनों के नाम से विख्यात सात राज्यों असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम  में और सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर पिछले 51 वर्षों से जारी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 (एएफएसपीए) का दंश तब से लेकर आज तक वहां के आम नागरिक झेल रहे हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 की आड़ में लगाए गए इस अमानवीय कानून के बदौलत सेना को सुरक्षा के नाम पर खुल्लम-खुल्ला मनमानी करने का वैध सरकारी लाइसेंस मिल गया है।
इस कानून के बल पर कुछ सैनिकों की काली करतूतों ने देश की आन-बान-शान कही जानेवाली भारतीय सेना को कई बार शर्मसार किया है। हालांकि इस कानून का विरोध शुरू से हो रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में विरोध के स्वर अधिक मुखर हुए हैं। पिछले 50 वर्षों के दौरान सैनिकों की ओर से इस कानून के तहत कार्रवाई के नाम  पर जो मनमाना और वहशियाना रुख अपनाया गया, उसके कुछ प्रमुख उदाहरणों से कल, आज और कल तीनों के परिप्रेशर में इस कानून की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान खड़े होते हैं। 1991 में असम में ऑपरेशन राइनो में सैन्य कार्रवाई के दौरान सैकड़ों मासूम ग्रामीणों की नृशंस तरीके से हत्या कर दी गई। मई, 1994 में सैन्य कार्रवाई के दौरान गन पॉइंट पर महिलाओं से बलात्कार की शर्मनाक घटना ने ना सिर्फ भारतीय सैनिकों के काले कारनामों की कलई खोली बल्कि इस कानून को ढाल बनाकर की जा रही अमानवीय कार्रवाई का नंगा सच उजागर कर दिया।
5 मार्च, 1995 को नागालैण्ड के कोहिमा में 16वीं राष्ट्रीय राइफल्स, सीआरपीएफ और असम  राइफल्स की संयुक्त कार्रवाई में 'ऑपरेशन तलाशी' चलाया गया। ऑपरेशन के दौरान जीप का टायर फटने पर मदांध सैनिकों ने बम हमले का अंदेशा लगाया। महज अंदेशे को आधार बनाकर सैनिकों ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरु कर दी,  कार्रवाई के दौरान की गई यह गैर जिम्मेदाराना हरकत और कुछ नहीं बल्कि इस कानून के तहत सेना को दिए गए विशेषाधिकारों का सच है, जिसके परिणामस्‍वरूप सात निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इतना ही सात नाबालिगों सहित कुल 22 लोगों को गंभीर चोटें आईं।
मार्च,1995 में ही नमतिरम (मणिपुर) में 21वीं राजपूताना राइफल्स ने 5 गांवों में सैन्य कार्रवाई के दौरान कई महिलाओं से बलात्कार की शर्मनाक घटना को अंजाम दिया। अप्रैल, 1995 को पश्चिमी त्रिपुरा के एक गांव में सीमा चौकी के पास सवारी कर रहे एक ग्रामीण को महज शक के आधार पर गोली मार दी गई। ऐसा नहीं है कि इन अमानवीय कार्रवाईयों का वहां रह रहे लोगों ने विरोध नहीं किया। समय-समय आम लोगों के विरोध को बड़ी निर्ममता से कुचला गया। जब-जब उन्होंने विरोध किया तब-तब सेना की कार्रवाईयां और अधिक तेज होती गईं। सेना का रवैया भी पहले की अपेक्षा और अधिक क्रूर होता गया, जिसके कारण इन नागरिकों का जीना मुहाल हो गया। 1997 में ओईनाम (मणिपुर) में ग्रामीणों के खिलाफ की जा रही हिंसा और सेना के अत्याचारों का विरोध करने पर सैनिकों ने 3 महिलाओं का बलात्कार कर 15 ग्रामीणों की सरेआम निर्मम हत्या कर दी। इतना ही नहीं बिजली के झटकों से कई लोगों को विकलांग बनाकर नारकीय जीवन जीने के लिए छोड़ दिया गया।
पिछले वर्ष यहां की महिलाओं ने सैनिकों के बलात्कार की घटनाओं और निर्मम सैन्य कार्रवाईयों से तंग आकर सेना के खिलाफ नग्न प्रदर्शन किया, लेकिन राजनैतिक कमजोरी और हुक्मरानों की व्यवस्था की दुहाई के सामने सब बेकार साबित हुआ। खास बात यह है कि इस कानून के तहत सेना के कार्रवाई के दौरान भीषण तबाही मचाने वाले उपकरण मोर्टार के उपयोग पर प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन सेना ने किसी भी मौके पर मोर्टारों के उपयोग में कोई परहेज नहीं किया। सेना के शांति और सुरक्षा व्यवस्था बनाने के अधिकारों के सामने पूर्वोत्‍तर के आम आदमी के अधिकार गौण हो गए।
देश के संविधान में अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त प्रत्येक भारतीय नागरिक के जीने के अधिकार व आजादी की गारंटी के नाम पर पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिक अपने आप को ठगा सा महसूस करते हैं। इस कानून के आधार पर सैनिकों को किसी पर भी कार्रवाई करने की खुली छूट की परिणति के परिणामस्‍वरूप कहीं न कहीं यहां के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है। यहां रहने वाले नागरिकों की मन:स्थिति देखिए, एक तरफ उन्हें उग्रवादियों का भय खाए जा रहा है तो दूसरी तरफ सैन्य कार्रवाई के नाम पर सैनिकों के जुल्मों-सितम का डर सता रहा है। अब सवाल यह है कि कब तक इन नागरिकों को इस काले कानून की विष-बेल के सहारे जीना पड़ेगा?

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