Thursday, October 21, 2010

निजी स्वार्थों ने ली गुरु-शिष्य परंपरा की 'बलि'

कहते हैं कि जिसके जीवन में गुरु नहीं उसका जीवन शुरू नहीं। भारत में गुरु-शिष्य परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। इसके पोषित-पल्लवित होने में गुरुकुलों की शिक्षण व्यवस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य, चंदगुप्त मौर्य-चाणक्य से लेकर विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक ऐसे बहुत से गुरु-शिष्य हुए, जिन्होंने न केवल इस आदर्श तथा दीर्घ परम्परा को आगे बढ़ाया बल्कि नए आयाम भी दिए। फिर भला उस एकलव्य को कौन भूल सकता है, जिसे द्रोणाचार्य ने शिष्य नहीं माना लेकिन, उसने द्रोणाचार्य को गुरु रूप में न केवल अंगीकार किया। बल्कि, उनकी मूर्ति स्थापित कर धनुर्विधा भी सीखी और उनके मांगने पर अंगूठा गुरु दक्षिणा में दे दिया। वर्तमान में यह परंपरा न केवल बहुत पीछे छूट रही है, बल्कि कलंकित भी हो रही है। आए दिन शिक्षकों का विद्यार्थियों के साथ तथा विद्यार्थियों के अपने गुरु के प्रति दुव्र्यवहार की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं। दुव्र्यवहार के मामले कुछ दशक पहले भी होते थे लेकिन, वे स्कूलों में जातिगत संबोधन तक सीमित थे। फिलवक्त जिस प्रकार के मामले सामने आ रहे हैं उनमें अधिकतर अश्लीलता तथा नैतिक मर्यादाओं के हनन के हैं। आज न तो गुरु-शिष्य परंपरा बची है और न ही इसमें विश्वास रखने वाले गुरु और शिष्य। समीक्षकों का मानना है कि अगर इस परंपरा को जिंदा रखना है तो समय रहते गुरु व शिष्य दोनों, को ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आना होगा। ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को संस्कारिक रूप में और आगे ले जाया जा सके। किसी भी शिष्य का अपने गुरु में विश्वास तथा गुरु की मान्यताओं, विचारों को सीखते हुए उन्हें आगे बढ़ाना उस शिष्य का कार्य भी है और धर्म भी। भारतीय संस्कृति में इसे ही गुरु-शिष्य परंपरा माना गया है। गुरु-शिष्य परंपरा केवल मात्र कोरी परंपरा ही नहीं है, बल्कि विविध संस्कृतियों के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढऩे का एक सशक्त माध्यम भी है। सदी के सिनेमाई महानायक अमिताभ बच्चन ने भी कई बार अपने ब्लॉग तथा समारोहों के दौरान इस परंपरा का उल्लेख किया है। एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को वर्तमान में गुरु-शिष्य परंपरा का सही अर्थों में निर्वाहक कहा था। इस दौरान बच्चन ने इस परंपरा को जारी रखने के लिए आह्वान भी किया था। इतिहास साक्षी है कि 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति बने तब उनके प्रशंसकों ने उनके जन्मदिवस (पांच सितम्बर) को शिक्षक दिवस के रूप में बनाने का निर्णय लिया। बकौल डॉ. राधाकृष्णन, शिक्षक होने से ही कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण अर्जित करना पड़ता है। इसमें शिक्षा को व्यवसायीकरण से बचाना होगा। देशभर के साथ स्थानीय मंचों पर कलाकारों-संगीतमर्मज्ञों ने अनेकों बार इस समस्या को उठाया है। अधिकतर का मानना है कि वर्तमान दौर में शिष्यों की गुरुजनों के प्रति वह शिद्दत तथा समर्पण भावना नहीं रही, जो पहले कभी हुआ करती थी। वे आगाह करते हैं कि समय रहते हम नहीं चेते तो गुरू-शिष्य परम्परा को विलुप्त होने से बचा पाना बेहद मुश्किल होगा।

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